ओशो साहित्य >> बेइरादा नजर उनसे टकरा गई बेइरादा नजर उनसे टकरा गईस्वामी ज्ञानभेद
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‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’ हिन्दी के वयोवृद्ध साहित्यकार स्वामी ज्ञानभेद की आत्मकथा है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
व्यक्ति जब स्वयं को ही पूरी तरह से नहीं जान पाता फिर दूसरों को कैसे समझ
सकेगा ? स्वयं को जान लेना ही एकमात्र अंतिम सत्य है। अपने मन के अंदर
अचेतन, सामूहिक अचेतन और ब्रह्म अचेतन हैं जिनमें सपनों का संसार, दमित
मनोवेग, जन्म-जन्म की स्मृतियां और सृष्टि और प्रलय के इतिहास के साथ अति
चेतन, ब्रह्म चेतन और निर्वाण चेतन के अत्यान्तिक अनुभव भी हैं जो सद्गुरु
कृपा से ध्यान और प्रेम के पंखों से उड़ान भरते हुए लाखों में से किसी एक
को अचानक घटते हैं।
एक ओशो मिले क्या, यह ज़िन्दगी नमन हो गई।
जब इबादत में सर झुक गया, ज़िन्दगी यह भजन हो गई।
जब इबादत में सर झुक गया, ज़िन्दगी यह भजन हो गई।
धूप और चांदनी को समेटता मैं
लिखता हूं
समय के बताए अक्षर
जो बूढ़े होते नहीं कभी।
धूप और चांदनी को इकट्ठे समेट
बोता हूं हर दिन उन्हें
अपनी शिराओं में
फूटेंगी यहां से कभी
कामनाओं के महासिंधु से परे
सत्य की उजली कोंपलें
एक सुनहरी सुबह।
धूप और चांदनी को हथेली से उतार
रख देता मैं
करीब अक्षय-वट के
साक्षी जो अविनाशी समय का
फिर रख देता मैं
ज़िन्दगी के सारे उल्लास
अब तक छिपे थे जो मेरे भीतर बाहर आने को
रचती रही जिन्हें पृथ्वी आहिस्ता-आहिस्ता
कि किसी को खबर न हो जाए
धूप और चांदनी के सिवा।
लिखता हूं
समय के बताए अक्षर
जो बूढ़े होते नहीं कभी।
धूप और चांदनी को इकट्ठे समेट
बोता हूं हर दिन उन्हें
अपनी शिराओं में
फूटेंगी यहां से कभी
कामनाओं के महासिंधु से परे
सत्य की उजली कोंपलें
एक सुनहरी सुबह।
धूप और चांदनी को हथेली से उतार
रख देता मैं
करीब अक्षय-वट के
साक्षी जो अविनाशी समय का
फिर रख देता मैं
ज़िन्दगी के सारे उल्लास
अब तक छिपे थे जो मेरे भीतर बाहर आने को
रचती रही जिन्हें पृथ्वी आहिस्ता-आहिस्ता
कि किसी को खबर न हो जाए
धूप और चांदनी के सिवा।
-प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय
भूमिका
‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’ हिन्दी के वयोवृद्ध साहित्यकार
स्वामी ज्ञानभेद की आत्मकथा है। किशोरावस्था से ही स्वामी ज्ञानभेद की
रुचि पठन-पाठन और लेखन में रही, लेकिन विधि के विधान ने उन्हें बिक्री-कर
विभाग से संबद्ध कर दिया। ज्ञानभेद जी निश्चित ही इस निहायत, गैर
साहित्यिक, कला-विहीन विभाग में जीवन खपाने के लिए बहुत मन मारकर ही राजी
हुए होंगे। आखिर जीवन की गाड़ी खींचने के लिए आर्थिक अवलम्ब भी तो उतना ही
जरूरी होता है।
फिर जैसा कि होता आया है नौकरी, विवाह, बच्चे और एक अदद मकान की जरूरत, इनमें उलझता-पुलझता आदमी उम्र के एक लम्बे और कीमती हिस्से को लांघ जाता है। रुचियों का गला घुटता रहता है। बुद्धि लकवा ग्रस्त हो जाती है। गृहस्थी और व्यवसाय के दो पाटों के बीच पिसता आदमी अपने ध्येय और रुचियों को दरकिनार करके भूल जाने के लिए मजबूर हो जाता है।
स्वामी ज्ञानभेद के साथ भी ऐसा ही हुआ। बिक्रीकर विभाग में नौकरी करते हुए उपायुक्त पद तक पहुंच गए। पद बढ़ने के साथ ही ज़िम्मेदारियां और जवाबदेही भी बढ़ती गयी। सरकारी फाइलों के बादामी कागज़, टैक्स निर्धारण संबंधित मुकदमें, जोड़-तोड़, विभागीय राजनीति, चापलूसियां और भ्रष्टाचार के बीच अपनी नैया खेते रहे। डूबते-उतराते, डगमगाते किनारे लगे रिटायरमेन्ट के बाद ही। तब तक जीवन गंगा में बहुत पानी बह चुका था। बहुत से गंदे नाले उसमें मिल चुके थे। शराबनोशी, ताश के पत्ते, यारों के साथ महफिलें, जीवन के जरूरी अंग बन चुके थे। जीवन के नए-नए सूत्र अपना लिए गए थे।
फिर जैसा कि होता आया है नौकरी, विवाह, बच्चे और एक अदद मकान की जरूरत, इनमें उलझता-पुलझता आदमी उम्र के एक लम्बे और कीमती हिस्से को लांघ जाता है। रुचियों का गला घुटता रहता है। बुद्धि लकवा ग्रस्त हो जाती है। गृहस्थी और व्यवसाय के दो पाटों के बीच पिसता आदमी अपने ध्येय और रुचियों को दरकिनार करके भूल जाने के लिए मजबूर हो जाता है।
स्वामी ज्ञानभेद के साथ भी ऐसा ही हुआ। बिक्रीकर विभाग में नौकरी करते हुए उपायुक्त पद तक पहुंच गए। पद बढ़ने के साथ ही ज़िम्मेदारियां और जवाबदेही भी बढ़ती गयी। सरकारी फाइलों के बादामी कागज़, टैक्स निर्धारण संबंधित मुकदमें, जोड़-तोड़, विभागीय राजनीति, चापलूसियां और भ्रष्टाचार के बीच अपनी नैया खेते रहे। डूबते-उतराते, डगमगाते किनारे लगे रिटायरमेन्ट के बाद ही। तब तक जीवन गंगा में बहुत पानी बह चुका था। बहुत से गंदे नाले उसमें मिल चुके थे। शराबनोशी, ताश के पत्ते, यारों के साथ महफिलें, जीवन के जरूरी अंग बन चुके थे। जीवन के नए-नए सूत्र अपना लिए गए थे।
खाओ, पियो और मौज करो।
व्यक्ति प्रतिष्ठित आसन पर विराजमान हो, और धन का आभाव न हो, तो जीवन के
समीकरण रूपांतरित होने लगते हैं। ऐसा लगने लगा कि वक्त ने ज्ञानभेद जी के
जीवन को दूसरी दिशा दे दी है। किशोरावस्था और युवावस्था का वो संवेदनशील
हृदय, कवि और लेखक, जीवन के रहस्यों के प्रति जिज्ञासु मन कहीं दूर-दूर
छूटता गया है। लेकिन ऐसा हुआ नहीं था। बाज़ार की खरीद-फरोत में लगा मन
समय-समय पर कचोट पैदा करने लगता। शराब पीकर मन संजीदा हो जाता। नशे में
होठों से उम्दा शेरों-शायरी झरने लगती है। दरअसल, किशोरावस्था से ही जो
पठन-पाठन और लेखन का शौक उभर कर सतह पर आया था वह मिटा नहीं था। सुप्त
अवस्था में वह मन के किसी अंधियारे कोने में पड़ा सही मौसम का इंतज़ार कर
रहा था। ठीक मिट्टी में दबे एक बीज की तरह जीवन और जगत्, आत्मा-परमात्मा
को लेकर उठने वाली जिज्ञासाएं और आत्म साक्षात्कार के प्रति गहरी अभीप्सा
उन चिंगारियों की तरह थीं, जो राख के ढेर में दबी रहती थीं।
यदा-कदा लेखन हुआ भी था। ‘चक्कर चुनाव का’ ‘नाकवाले’ ‘नुमाइश’, ‘कैक्टस के वन में’ तथा ‘हारे हुए लोग’ नाम के उपन्यास लिखे जा चुके थे। ‘जिन्दगी शहर की बाहों में’ और ‘खुदा खैर करे’ नाम के दो व्यंग्य संग्रह तथा ‘बर्दाश्त के बाहर’ नाम से एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका था। यह सब लेखन श्रीकांत मित्तल के छद्म नाम से हुआ था। मुझे इनमें से अधिकांश को पढ़ने का मौका मिला है। ये सभी कृतियां इस बात के लिए तो आश्वस्त करती हैं कि उनकी लेखिनी में प्रवाह है, दृष्टि है और परिपक्व शब्द विन्यास है। लेकिन बावजूद इसके ‘गहरायी’ का अभाव महसूस होता है। अंतदृष्टि का अभाव दिखता है। बात को अधिक स्पष्ट करें तो उनकी प्रारंभिक कृतियों की शैली भी प्रभावित करती है और मनोरंजन भी प्रदान करती है, परन्तु आत्मा पर चोट नहीं करती और न ही आत्म चिंतन की दिशा में ले जाने का प्रयास करती है। यह सब भी मैं उनकी आज की कृतियों के सापेक्ष में ही कह पा रहा हूं। इस विनम्र आलोचना के बावजूद उनके भीतर छिपे हुए एक अच्छे साहित्यकार के गुण-धर्म से इंकार नहीं किया जा सकता।
1993 में नौकरी से अवकाश पाते ही, हृदय के गर्त में एक समय से दफ़न बीज अंकुरित होने लगे। अध्यात्म और साहित्य के अंकुर फूटने लगे। 1988 में ओशो साहित्य से जुड़े चुके थे। ओशो साहित्य ने सोच में आमूल-चूल परिवर्तन तो किया ही, जीवनचर्या को भी एक सौ अस्सी अंश तक पहुँचा दिया। भीतर कहीं एक हलचल तो थी ही, ओशो के सान्निध्य ने ज्वार-भाटा पैदा कर दिया। जो अभी तक लिखा था, विचारा और समझा था सब व्यर्थ हो गया। जाने-पहचाने रास्ते खो गए। जीवन को देखने समझने के लिए तरोताज़ा आँखें मिल गयीं। वैसी ही आँखें जो एक शिशु के चेहरे पर होती हैं-निर्मल और विस्मय विमुग्ध।
निर्मल दृष्टि से तात्पर्य है-पक्षपात रहित, संस्कार और पूर्वाग्रहों से मुक्त। यह कठिन है, जो ओशो से अंतरंग रूप से जुड़ गया उसके लिए इस बोझ को अधिक देर तक ढो पाना असंभव हो जाता है। झूठ के साथ जीना सुविधाजनक हो सकता है पर तृप्तिदायी और आन्ददायी कभी नहीं। फिर जिसकी खोज आनंद हो, सत्य हो और जिसकी अभीप्सा मुक्ति हो, उसे धर्म, जाति, समाज और परिवार द्वारा पहचानी गई इन जंजीरों से मन को आज़ाद करना ही होता है। यह जंजीरें ही तो हैं मनुष्य की चेतना को जकड़कर रखने वाली। यही तो हैं–चेतना को चारों ओर से घेरे कारागृह की ठोस दीवारें।
यदा-कदा लेखन हुआ भी था। ‘चक्कर चुनाव का’ ‘नाकवाले’ ‘नुमाइश’, ‘कैक्टस के वन में’ तथा ‘हारे हुए लोग’ नाम के उपन्यास लिखे जा चुके थे। ‘जिन्दगी शहर की बाहों में’ और ‘खुदा खैर करे’ नाम के दो व्यंग्य संग्रह तथा ‘बर्दाश्त के बाहर’ नाम से एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका था। यह सब लेखन श्रीकांत मित्तल के छद्म नाम से हुआ था। मुझे इनमें से अधिकांश को पढ़ने का मौका मिला है। ये सभी कृतियां इस बात के लिए तो आश्वस्त करती हैं कि उनकी लेखिनी में प्रवाह है, दृष्टि है और परिपक्व शब्द विन्यास है। लेकिन बावजूद इसके ‘गहरायी’ का अभाव महसूस होता है। अंतदृष्टि का अभाव दिखता है। बात को अधिक स्पष्ट करें तो उनकी प्रारंभिक कृतियों की शैली भी प्रभावित करती है और मनोरंजन भी प्रदान करती है, परन्तु आत्मा पर चोट नहीं करती और न ही आत्म चिंतन की दिशा में ले जाने का प्रयास करती है। यह सब भी मैं उनकी आज की कृतियों के सापेक्ष में ही कह पा रहा हूं। इस विनम्र आलोचना के बावजूद उनके भीतर छिपे हुए एक अच्छे साहित्यकार के गुण-धर्म से इंकार नहीं किया जा सकता।
1993 में नौकरी से अवकाश पाते ही, हृदय के गर्त में एक समय से दफ़न बीज अंकुरित होने लगे। अध्यात्म और साहित्य के अंकुर फूटने लगे। 1988 में ओशो साहित्य से जुड़े चुके थे। ओशो साहित्य ने सोच में आमूल-चूल परिवर्तन तो किया ही, जीवनचर्या को भी एक सौ अस्सी अंश तक पहुँचा दिया। भीतर कहीं एक हलचल तो थी ही, ओशो के सान्निध्य ने ज्वार-भाटा पैदा कर दिया। जो अभी तक लिखा था, विचारा और समझा था सब व्यर्थ हो गया। जाने-पहचाने रास्ते खो गए। जीवन को देखने समझने के लिए तरोताज़ा आँखें मिल गयीं। वैसी ही आँखें जो एक शिशु के चेहरे पर होती हैं-निर्मल और विस्मय विमुग्ध।
निर्मल दृष्टि से तात्पर्य है-पक्षपात रहित, संस्कार और पूर्वाग्रहों से मुक्त। यह कठिन है, जो ओशो से अंतरंग रूप से जुड़ गया उसके लिए इस बोझ को अधिक देर तक ढो पाना असंभव हो जाता है। झूठ के साथ जीना सुविधाजनक हो सकता है पर तृप्तिदायी और आन्ददायी कभी नहीं। फिर जिसकी खोज आनंद हो, सत्य हो और जिसकी अभीप्सा मुक्ति हो, उसे धर्म, जाति, समाज और परिवार द्वारा पहचानी गई इन जंजीरों से मन को आज़ाद करना ही होता है। यह जंजीरें ही तो हैं मनुष्य की चेतना को जकड़कर रखने वाली। यही तो हैं–चेतना को चारों ओर से घेरे कारागृह की ठोस दीवारें।
कैसी पूजा, कैसा चन्दन
हर चन्दन है मन का बन्धन,
जंजीरें आभूषण जैसी
कौन यहां कैसे ठुकराए ?
हर चन्दन है मन का बन्धन,
जंजीरें आभूषण जैसी
कौन यहां कैसे ठुकराए ?
ताजी हवा कहीं बहती है
यह आभास मुझे होता है,
लेकिन कैसे बंद किवाड़ों
को, कोई विश्वास दिलाए।
यह आभास मुझे होता है,
लेकिन कैसे बंद किवाड़ों
को, कोई विश्वास दिलाए।
हृदय के द्वार खुलते ही ताजा हवा के झोकों ने ज्ञानभेद जी को सरोबार कर
दिया। अब वो खुले आकाश के नीचे खड़े थे। असीम अनन्त अस्तित्व का स्पर्श
उन्हें महसूस होने लगा। मन के द्वारा गढ़े गए छोटे-छोटे घरौंदे टूट कर
बिखर गए। इन घरौंदों को गढ़ने और संवारने की व्यर्थता का बोध होने लगा।
अनन्त आकाश की ओर उनकी दृष्टि उठी तो घर के आंगन में झांकने वाला आकाश
बहुत छोटा हो गया। सीमाएं दृष्टि की हैं आकाश की कहाँ कोई सीमा है ?
स्वयं लेखक के कथनानुसार ‘‘ध्यान का स्वाद मिलने पर 1993 से सप्रयास लेखन बंद कर दिया।’’
सप्रयास लेखन बंद हुआ तो स्वस्फूर्त लेखन होने लगा। रचनाक्रम का तनाव विदा हो गया। निन्दा-स्तुति की आशंकाओं से चित्त मुक्त हो गया। कलम की बाजीगरी दिखाकर अपने को स्थापित करने की महत्वाकांक्षा, लोकप्रियता और धनार्जन की आकांक्षा से मुक्त लेखनी जब कसमसाई तो सर्वप्रथम अपने परम पूज्य सद्गुरु ओशो की गाथा लिखने को हृदय बेचैन होने लगा। ओशो के संपूर्ण व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना एक असंभव बात थी। एक दुस्साहस था।
‘एक फक्कड़ मसीहा’–ओशो के लेखन काल के दौरान (जो काफी लंबा था), कई बार मेरा लेखक से मिलना हुआ। वो एक खुमारी के दौर से गुजर रहे
थे। पृष्ठ दर पृष्ठ लिखते हुए नौ खण्डों में जाकर यह महाग्रंथ पूरी हुआ। वेदव्यास, वाल्मीकि और तुलसीदास जैसा एक भागीरथी प्रयास रहित प्रयास अपने चरम पर पहुंचा। प्रशंसकों के हज़ारों हज़ार पत्र इस दौरान लेखक को मिलते रहे। इस महाकथा के अलावा भी ‘ओशो ही ओशो’, सद्गुरु समर्पण (अनुवाद) ‘बुद्धत्व खड़ा बाज़ार में’ आदि लेखक की अन्य पुस्तकों को भी पाठकवर्ग से बहुत सराहना मिली है। अड़सठ वर्ष की उम्र में भी ज्ञानभेद की लेखिनी उतनी ही त्वरा से रचनाक्रम में लगी हुई है।
‘‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’’ लेखक की नवीनतम् कृति है। यह लेखक की अपनी यात्रा या आत्मकथा है। काफी उहापोह और संकोच के बाद, लोगों के बहुत आग्रह के उपरान्त लेखक ने अपनी आत्मकथा लिखने का मन बनाया।
स्वयं लेखन से जुड़े होने के नाते मैं यह महसूस करता हूं कि आत्मकथा लिखना स्वयं को उघाड़ना है। इस उघाड़ने में जीवन के तमाम निन्दनीय और वन्दनीय पक्ष पाठकों के सामने ईमानदार से रखने का साहस जुटाना होता है। पारदर्शिता और ईमानदारी ही किसी आत्मकथा को प्रमाणिक बनाती है। जीवन में तमाम ऊँच-नीच और अंधेरे-उजाले पक्ष होते हैं। उजाले पक्ष को तो सभी आलोकित (high light) करके प्रशंसा बटोरना चाहते हैं लेकिन अपनी कमज़ोरियों और गलतियों को स्वीकार करने के लिए बहुत साहस की दरक़ार होती है।
वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र यादव के अनुसार आत्मकथा में बहुत से सत्य छोड़ दिए जाते हैं और बहुत से झूठ मुख्य स्थान पा लेते हैं क्योंकि जाने-अनजाने वहां सेल्फ जस्टीफिकेशन का तत्त्व बना रहता है।
‘‘आत्मकथाओं में कितना सच है और कितना झूठ, यह तो लेखक का अंतःकरण ही बती सकता है।
स्वयं लेखक के कथनानुसार ‘‘ध्यान का स्वाद मिलने पर 1993 से सप्रयास लेखन बंद कर दिया।’’
सप्रयास लेखन बंद हुआ तो स्वस्फूर्त लेखन होने लगा। रचनाक्रम का तनाव विदा हो गया। निन्दा-स्तुति की आशंकाओं से चित्त मुक्त हो गया। कलम की बाजीगरी दिखाकर अपने को स्थापित करने की महत्वाकांक्षा, लोकप्रियता और धनार्जन की आकांक्षा से मुक्त लेखनी जब कसमसाई तो सर्वप्रथम अपने परम पूज्य सद्गुरु ओशो की गाथा लिखने को हृदय बेचैन होने लगा। ओशो के संपूर्ण व्यक्तित्व को शब्दों में बांधना एक असंभव बात थी। एक दुस्साहस था।
‘एक फक्कड़ मसीहा’–ओशो के लेखन काल के दौरान (जो काफी लंबा था), कई बार मेरा लेखक से मिलना हुआ। वो एक खुमारी के दौर से गुजर रहे
थे। पृष्ठ दर पृष्ठ लिखते हुए नौ खण्डों में जाकर यह महाग्रंथ पूरी हुआ। वेदव्यास, वाल्मीकि और तुलसीदास जैसा एक भागीरथी प्रयास रहित प्रयास अपने चरम पर पहुंचा। प्रशंसकों के हज़ारों हज़ार पत्र इस दौरान लेखक को मिलते रहे। इस महाकथा के अलावा भी ‘ओशो ही ओशो’, सद्गुरु समर्पण (अनुवाद) ‘बुद्धत्व खड़ा बाज़ार में’ आदि लेखक की अन्य पुस्तकों को भी पाठकवर्ग से बहुत सराहना मिली है। अड़सठ वर्ष की उम्र में भी ज्ञानभेद की लेखिनी उतनी ही त्वरा से रचनाक्रम में लगी हुई है।
‘‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’’ लेखक की नवीनतम् कृति है। यह लेखक की अपनी यात्रा या आत्मकथा है। काफी उहापोह और संकोच के बाद, लोगों के बहुत आग्रह के उपरान्त लेखक ने अपनी आत्मकथा लिखने का मन बनाया।
स्वयं लेखन से जुड़े होने के नाते मैं यह महसूस करता हूं कि आत्मकथा लिखना स्वयं को उघाड़ना है। इस उघाड़ने में जीवन के तमाम निन्दनीय और वन्दनीय पक्ष पाठकों के सामने ईमानदार से रखने का साहस जुटाना होता है। पारदर्शिता और ईमानदारी ही किसी आत्मकथा को प्रमाणिक बनाती है। जीवन में तमाम ऊँच-नीच और अंधेरे-उजाले पक्ष होते हैं। उजाले पक्ष को तो सभी आलोकित (high light) करके प्रशंसा बटोरना चाहते हैं लेकिन अपनी कमज़ोरियों और गलतियों को स्वीकार करने के लिए बहुत साहस की दरक़ार होती है।
वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र यादव के अनुसार आत्मकथा में बहुत से सत्य छोड़ दिए जाते हैं और बहुत से झूठ मुख्य स्थान पा लेते हैं क्योंकि जाने-अनजाने वहां सेल्फ जस्टीफिकेशन का तत्त्व बना रहता है।
‘‘आत्मकथाओं में कितना सच है और कितना झूठ, यह तो लेखक का अंतःकरण ही बती सकता है।
-शिवाजी (कथाकार)
मुझे लगता है कि आत्मकथा में तीन आयाम होते हैं। पहला भौतिक आयाम है जो
जन्म, माता-पिता, गांव-जिला, पढ़ाई व्यवसाय, विवाह, आर्थिक, सामाजिक और
राजनैतिक स्थितियों का ब्यौरा होता है। यह ब्यौरा पाठक को उस काल विशेष के
बारे में काफी जानकारी देता है।
दूसरा आयाम है अन्तर कथाएं–जो किसी भी आत्मकथा का अभिन्न अंग हैं। यह अन्तर कथाएं घर परिवार के रिश्तों, सामाजिक सरोकरों, खट्टी-मीठी यादों और संपर्क में आए विविध चरित्रों का चित्रण करती हैं।
तीसरा आयाम है लेखक की जीवन यात्रा में गुंथे हुए उसके व्यक्तिगत दृष्टिकोण, भावनाएं, सोच-विचार, विश्वास और धारणाएं जो कथा के साथ चलते हुए, बढ़ती उम्र और समझ के अनुसार परिवर्तनशीलता दर्शाते हैं।
मुझे किसी आत्मकथा का सबसे संवेदनशील पहलू यह लगता है कि लेखक की अपनी कथा के साथ तमाम जीवित और मृत चरित्रों का जुड़ना अपरिहार्य हो जाता है। घर-परिवार और समाज के तमाम चरित्र लेखक के नजरिए से प्रस्तुत होते हैं। लेखक की ईमानदारी के बावजूद इन चरित्रों के वर्णन को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता है।
‘‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’’ में एक सेल्फ जस्टीफिकेशन का तत्त्व उभरता नहीं दिखता है। कारण यह है कि लेखक स्वयं अपने को नग्न देखने को उत्सुक है। वो आत्म साक्षात्कार की प्यास से उत्पन्न हृदय है। इसीलिए ये आत्मकथा लेखक के जीवन की तमाम ऊँच-नीच अपने में संजो कर चलती है। लेखक का यही साहस, कथा की पारदर्शिता को यथासंभव बना कर रखता है। ज्ञानभेद जी ने आत्मकथा के बहाने अपनी अंतःर्यात्रा के अनुभवों को भी बखूबी इसमें पिरोया है।
शिशु और किशोरावस्था में इटावा में बीते वर्षों का वृत्तांत बहुत जीवन्त है। उस समय के परिवार, मोहल्ले और समाज, रहन-सहन और सरोकारों का वर्णन और उस उम्र में लेखक की अपनी सोच और समझ का प्रस्तुतीकरण पाठक को उसी जमीन पर लाकर खड़ा कर देता है।
लेखक द्वारा वर्णित अंतःर्यात्रा के अनुभव ध्यान, सतोरी आदि निश्चित रूप से उन पाठकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है जो आध्यात्मिक जिज्ञासाओं से भरे हुए हैं।
लेखक के ओशो के साथ जुड़ने की कथा भावुकता से ओत-प्रोत है। ओशो से अंतरंग रूप से जुड़े अनेक पाठकों को यह अपनी कथा लग सकती है। जाहिर है कि पुस्तक के शीर्षक ‘‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’’ का ये ‘उनसे’, ओशो ही है और पूरा संदर्भ पढ़कर शीर्षक बहुत सार्थक हो जाता है। लेखक की नज़र ओशो से बेइरादा ही टकरा गई थी।
स्वामी ज्ञानभेद की इस जीवनयात्रा में भावुकता के झंझावत हैं, नियति के खेल हैं, अमावस और पूर्णिमा है, अतीन्द्रिय अनुभव हैं, परिवार और समाज पर व्यापक दृष्टिपात है और इन सबमें एक कथा का प्रवाह है।
‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’, पाठकों को जीवन के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों से रूबरू हुए उसे स्वयं के जीवन को खंगलाने के लिए प्रेरित करती है। इस उत्तम प्रस्तुतीकरण के लिए स्वामी ज्ञानभेद बधाई के पात्र हैं।
दूसरा आयाम है अन्तर कथाएं–जो किसी भी आत्मकथा का अभिन्न अंग हैं। यह अन्तर कथाएं घर परिवार के रिश्तों, सामाजिक सरोकरों, खट्टी-मीठी यादों और संपर्क में आए विविध चरित्रों का चित्रण करती हैं।
तीसरा आयाम है लेखक की जीवन यात्रा में गुंथे हुए उसके व्यक्तिगत दृष्टिकोण, भावनाएं, सोच-विचार, विश्वास और धारणाएं जो कथा के साथ चलते हुए, बढ़ती उम्र और समझ के अनुसार परिवर्तनशीलता दर्शाते हैं।
मुझे किसी आत्मकथा का सबसे संवेदनशील पहलू यह लगता है कि लेखक की अपनी कथा के साथ तमाम जीवित और मृत चरित्रों का जुड़ना अपरिहार्य हो जाता है। घर-परिवार और समाज के तमाम चरित्र लेखक के नजरिए से प्रस्तुत होते हैं। लेखक की ईमानदारी के बावजूद इन चरित्रों के वर्णन को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता है।
‘‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’’ में एक सेल्फ जस्टीफिकेशन का तत्त्व उभरता नहीं दिखता है। कारण यह है कि लेखक स्वयं अपने को नग्न देखने को उत्सुक है। वो आत्म साक्षात्कार की प्यास से उत्पन्न हृदय है। इसीलिए ये आत्मकथा लेखक के जीवन की तमाम ऊँच-नीच अपने में संजो कर चलती है। लेखक का यही साहस, कथा की पारदर्शिता को यथासंभव बना कर रखता है। ज्ञानभेद जी ने आत्मकथा के बहाने अपनी अंतःर्यात्रा के अनुभवों को भी बखूबी इसमें पिरोया है।
शिशु और किशोरावस्था में इटावा में बीते वर्षों का वृत्तांत बहुत जीवन्त है। उस समय के परिवार, मोहल्ले और समाज, रहन-सहन और सरोकारों का वर्णन और उस उम्र में लेखक की अपनी सोच और समझ का प्रस्तुतीकरण पाठक को उसी जमीन पर लाकर खड़ा कर देता है।
लेखक द्वारा वर्णित अंतःर्यात्रा के अनुभव ध्यान, सतोरी आदि निश्चित रूप से उन पाठकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है जो आध्यात्मिक जिज्ञासाओं से भरे हुए हैं।
लेखक के ओशो के साथ जुड़ने की कथा भावुकता से ओत-प्रोत है। ओशो से अंतरंग रूप से जुड़े अनेक पाठकों को यह अपनी कथा लग सकती है। जाहिर है कि पुस्तक के शीर्षक ‘‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’’ का ये ‘उनसे’, ओशो ही है और पूरा संदर्भ पढ़कर शीर्षक बहुत सार्थक हो जाता है। लेखक की नज़र ओशो से बेइरादा ही टकरा गई थी।
स्वामी ज्ञानभेद की इस जीवनयात्रा में भावुकता के झंझावत हैं, नियति के खेल हैं, अमावस और पूर्णिमा है, अतीन्द्रिय अनुभव हैं, परिवार और समाज पर व्यापक दृष्टिपात है और इन सबमें एक कथा का प्रवाह है।
‘बेइरादा नज़र उनसे टकरा गई’, पाठकों को जीवन के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों से रूबरू हुए उसे स्वयं के जीवन को खंगलाने के लिए प्रेरित करती है। इस उत्तम प्रस्तुतीकरण के लिए स्वामी ज्ञानभेद बधाई के पात्र हैं।
-प्रेम निशीथ
258, J, आदर्शनगर
(जे.के. कालोनी)
कानपुर उत्तर प्रदेश 208010
(जे.के. कालोनी)
कानपुर उत्तर प्रदेश 208010
अपनी बात
कुछ दिनों पूर्व रश्मि रेखा की एक कविता पढ़ी
थी –
‘झोला’। बहुत प्यारी और सारगर्भित कविता है यह। आइए,
आपको भी
उसका साझेदार बनाऊँ।
यह झोला
पहिए के बाद का सृष्टि का सबसे बड़ा अविष्कार है
कभी पड़ी होगी जरूरत कैंची, सुई और धागे की एक साथ
समय की फिसलन से कुछ चीज़ें बचा लेने की इच्छाओं ने मिल-जुलकर डाली होगी नींव झोले की।
पर इससे पहले बनी होगी गठरियाँ
कुछ सौगात अपनों के लिए
बांध ले जाने की ख्वाहिश में
उम्र के भावों में पीछा करते अनुभवों को
मुश्किलें आसान करने के कुछ खास नुस्खों को
दूसरों के लिए बचाने की खातिर ही
बनी होगी तह दर तह
चेहरों पर झुर्रियों की झोली
जिसे बांट देना चाहता होगा हर शख्स
जाने से पहले
कि आगे भी बची रह सके उसकी छाप और परछाई।
पहिए के बाद का सृष्टि का सबसे बड़ा अविष्कार है
कभी पड़ी होगी जरूरत कैंची, सुई और धागे की एक साथ
समय की फिसलन से कुछ चीज़ें बचा लेने की इच्छाओं ने मिल-जुलकर डाली होगी नींव झोले की।
पर इससे पहले बनी होगी गठरियाँ
कुछ सौगात अपनों के लिए
बांध ले जाने की ख्वाहिश में
उम्र के भावों में पीछा करते अनुभवों को
मुश्किलें आसान करने के कुछ खास नुस्खों को
दूसरों के लिए बचाने की खातिर ही
बनी होगी तह दर तह
चेहरों पर झुर्रियों की झोली
जिसे बांट देना चाहता होगा हर शख्स
जाने से पहले
कि आगे भी बची रह सके उसकी छाप और परछाई।
सोचता हूं-यह ‘जीवन यात्रा बनाम अंत:र्यात्रा’ अपने
चेहरे की
झुर्रियों की झोली के अनुभवों को बांटने के साथ-साथ इस संसार से विदा होने
के पूर्व कहीं अपनी छाप और परछाईं छोड़ देने की कोशिश तो नहीं है ? यह
वस्तुतः है भी और नहीं भी है। है–इसलिए क्योंकि जो कुछ मैंने
संघर्ष, द्वंद्व, पद, भोग और तृष्णा की व्यर्थता का बोध होने पर जाना यह
उसकी ही कहानी है जिसके चप्पे-चप्पे पर मेरी छाप और परछाईं है।
और ‘नहीं है’–इसलिए क्योंकि मैं अब बचा ही नहीं। ‘मैं’ और ‘तू’ का सारा भेद ही मिट गया। फिर कैसी छाप और कैसी परछाईं ?
व्यक्ति जीवन भर धूप और धुंधले उजास में अपनी ही परछाईं और अपनी ही आहट से डरता रहता है। परछाईं से पीछा छूटता है सिर्फ ध्यान और प्रेम की छांव में।
हमारे इस वर्तमान जीवन पर हमारी ही नहीं, उन सभी की छाप है, जिनके बीच हम पले, बढ़े और विकसित हुए। जिनसे हमने प्रेम, घृणा और ईर्ष्या की। जिन पर क्रोध किया। जिनसे हम भयभीत हुए और जिन्हें हमने डराया। स्वयं दूसरों की हिंसा, वासना और शोषण के शिकार हुए और प्रतिक्रियाओं स्वरूप अपनों से कमजोर लोगों पर हमने उसी का इस्तेमाल किया। हमारा वर्तमान जीवन हमें जन्म-जन्मों की यात्राओं के बाद मिला है। हमारा मन ही वह जादुई झोला है
जिसमें सिर्फ इसी जन्म के ही नहीं, जन्म-जन्मों के संस्कार, स्मृतियाँ और दमित मनोवेगों का गोरखधंधा छिपा है। जब हमें सामूहिक और ब्रह्म अचेतन की झलकियां मिलती हैं, अर्थात् जब ध्यान प्रयोगों द्वारा हम अपने स्थूल, सूक्ष्म और आकाश शरीर के पार मनस शरीर द्वारा अपनी कल्पनाओं को अतीन्द्रिय दर्शन में रूपांतरित हुआ देखते हैं, तब अपनी सभी क्षुद्रताओं और कारागृहों के पार हमें उस शून्यता और मुक्त प्रकाश का पहिली बार अनुभव होता है, जिसे अभिव्यक्त करना बहुत-बहुत कठिन है। केवन मात्र उसके कुछ संकेत दिए जा सकते हैं।
उत्तर प्रदेश यह कोई गंभीर, उदास और उबाऊ प्रक्रिया नहीं, बहुत रसपूर्ण, उत्सव और आनन्दपूर्ण एक खेल है जिसमें सभी मुखौटे उतारकर आवरणहीन होकर अपने आपको नग्न देखना होता है। यह ठीक एक प्याज को छीलते जाने की तरह है। एक-एक पर्त को छीलते उघाड़ते हुए, कोमल से कोमलतम पर्तें निरन्तर छोटी और छोटी होती जाती हैं और अंत में केवल मात्र शून्यता बच जाती है।
और ‘नहीं है’–इसलिए क्योंकि मैं अब बचा ही नहीं। ‘मैं’ और ‘तू’ का सारा भेद ही मिट गया। फिर कैसी छाप और कैसी परछाईं ?
व्यक्ति जीवन भर धूप और धुंधले उजास में अपनी ही परछाईं और अपनी ही आहट से डरता रहता है। परछाईं से पीछा छूटता है सिर्फ ध्यान और प्रेम की छांव में।
हमारे इस वर्तमान जीवन पर हमारी ही नहीं, उन सभी की छाप है, जिनके बीच हम पले, बढ़े और विकसित हुए। जिनसे हमने प्रेम, घृणा और ईर्ष्या की। जिन पर क्रोध किया। जिनसे हम भयभीत हुए और जिन्हें हमने डराया। स्वयं दूसरों की हिंसा, वासना और शोषण के शिकार हुए और प्रतिक्रियाओं स्वरूप अपनों से कमजोर लोगों पर हमने उसी का इस्तेमाल किया। हमारा वर्तमान जीवन हमें जन्म-जन्मों की यात्राओं के बाद मिला है। हमारा मन ही वह जादुई झोला है
जिसमें सिर्फ इसी जन्म के ही नहीं, जन्म-जन्मों के संस्कार, स्मृतियाँ और दमित मनोवेगों का गोरखधंधा छिपा है। जब हमें सामूहिक और ब्रह्म अचेतन की झलकियां मिलती हैं, अर्थात् जब ध्यान प्रयोगों द्वारा हम अपने स्थूल, सूक्ष्म और आकाश शरीर के पार मनस शरीर द्वारा अपनी कल्पनाओं को अतीन्द्रिय दर्शन में रूपांतरित हुआ देखते हैं, तब अपनी सभी क्षुद्रताओं और कारागृहों के पार हमें उस शून्यता और मुक्त प्रकाश का पहिली बार अनुभव होता है, जिसे अभिव्यक्त करना बहुत-बहुत कठिन है। केवन मात्र उसके कुछ संकेत दिए जा सकते हैं।
उत्तर प्रदेश यह कोई गंभीर, उदास और उबाऊ प्रक्रिया नहीं, बहुत रसपूर्ण, उत्सव और आनन्दपूर्ण एक खेल है जिसमें सभी मुखौटे उतारकर आवरणहीन होकर अपने आपको नग्न देखना होता है। यह ठीक एक प्याज को छीलते जाने की तरह है। एक-एक पर्त को छीलते उघाड़ते हुए, कोमल से कोमलतम पर्तें निरन्तर छोटी और छोटी होती जाती हैं और अंत में केवल मात्र शून्यता बच जाती है।
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